श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
प्रातःकाल उठने पर पुरवासियों का विलाप करना और निराश
होकर नगर को लौटना
बीती
रात जानकर जब, सुबह अयोध्यावासी जागे
हुए
अचेत, शोक से व्याकुल, श्रीराम को न पाकर वे
खिन्न
हुए से लगे खोजने, किन्तु न कोई चिह्न पा सके
दीन
हुए से अश्रु बहाते, विलग हुए जब श्रीराम से
करुणा
भरे वचन बोलते, भर विषाद में वे स्वयं को
है
धिक्कार नींद को, जिसमें खोकर, खोया महाबाहु को
कभी
नहीं निष्फल होती है, जिनकी कोई भी क्रिया
तापसवेश
धरे राम ने, क्यों भक्तों का त्याग किया
पिता
की भांति पालन करते, रक्षा सदा हमारी की
क्यों
छोड़कर चले गये हैं, रघुकुल श्रेष्ठ राम वे ही
जीवन
हितकर नहीं राम बिन, अब हम यहीं प्राण त्यागें
या
मरने का निश्चय करके, उत्तर दिशा की ओर चलें
अथवा
सूखे काठ यहाँ हैं, चिता जला प्रवेश करेंगे
राम
को वन छोड़ आए हैं, कैसे ऐसे वचन कहेंगे
श्रीराम
के बिना देखकर, नगरी दीन हीन होगी
उनके
साथ निवास करेंगे, यही हमारी इच्छा थी
अयोध्या
को कैसे देखेंगे, अब उनसे हम विलग हुए
इसी
तरह की बातें कहते, वे विलाप करने लगे
बछड़ों
से जो बिछुड़ गयी हों, उन गौओं की भांति व्याकुल
रथ
की लीक देख गये आगे, चिह्न न पाकर लौटे आकुल
क्या
हुआ ? अब क्या करें ?, भाग्य ने लिख दिया मरण
कहते
हुए वे पुरुष मनस्वी, रथ की लीक का करें अनुसरण
अश्रु
बहाते थे नेत्रों से, चित्त क्लांत हुआ था उनका
जिस
मार्ग से गये थे वन को, लौट उसी से गये अयोध्या
जहाँ
सभी अति व्यथित थे, उस नगरी को उन्होंने पाया
गरुड़
से नाग निकाल लिया हो, उस नदी की भांति सूना
शोभित
नहीं थी अब वह नगरी, चन्द्रहीन आकाश की भांति
जलहीन
सागर सी शून्य, देख अवस्था हुए दुखी
नष्ट
हुआ था उनके उर का, हर्ष और सारा उल्लास
दुःख
से पीड़ित नहीं कर सके, निज-अन्य की वे पहचान
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतालीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
No comments:
Post a Comment