श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोनपञ्चाशः सर्गः
ग्रामवासियों की बातें सुनते हुए श्रीरामका कोसल जनपद को लांघते हुए आगे जाना और
वेदश्रुति, गोमती एवं स्यन्दिका नदियों को पार करके सुमन्त्र से कुछ कहना
पिता की आज्ञा का स्मरण कर,
दूर निकल गये राम अति
उसी तरह चलते-चलते ही, रजनी
वह व्यतीत हुई
हुआ सवेरा संध्या करके,
जनपद लांघ बढ़े आगे वे
खेतों, ग्रामों, फूलों के
वन, शीघ्र देख आगे बढ़ते थे
छोटे-बड़े गाँव थे पथ में,
ग्रामीणों की बातें सुनते
कैकेयी को जो धिक्कारें, राजा
दशरथ को कोसते
कैसे दुःख भोगेंगी सीता, हृदयहीन
क्यों पिता हो गये
बातें सुनते सबकी राम, लांघ
के कोसल आगे बढ़ गये
शीतल, सुखद जल देने वाली,
वेदश्रुति नदी तक पहुंचे
गौएँ जहाँ विचरण करतीं थीं,
तट गोमती पर जा पहुंचे
घोड़ों द्वारा पार किया तब, हंस-व्याप्त स्यन्दिका को
जा पहुंचे उस स्थान पर,
धनधान्य से था सम्पन जो
पूर्वकाल में जिस भूमि को,
इक्ष्वाकु को दिया मनु ने
सीता को दिखलाई भूमि, कहे
राम ने वचन सूत से
लौट पिता से कब मिलूँगा,
मृगया हेतु भ्रमण करूंगा
नहीं अधिक अभिलाषा इसकी,
मनुपुत्रों की है यह क्रीड़ा
इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम,
विभिन्न विषयों पर बातें करते
किया पार कोसल सीमा को, उस
मार्ग पर आगे बढ़ते
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनचासवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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