श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः
सीता, राम और लक्ष्मण का दशरथ की परिक्रमा करके कौसल्या आदि को प्रणाम करना,
सुमित्रा का लक्ष्मण को उपदेश, सीता सहित श्रीराम और लक्ष्मण का रथ में बैठकर वन
की और प्रस्थान, पुरवासियों तथा रानियों सहित महाराज दशरथ की शोकाकुल अवस्था
राम, लक्ष्मण व सीता ने, दीनभाव से हाथ जोड़कर
की दक्षिणावर्त परिक्रमा, दशरथ के चरणों को छूकर
लेकर विदा राम पिता से, माँ का कष्ट देखने आये
सीता संग होकर व्याकुल, उनके
पग में शीश झुकाए
किया प्रणाम लक्ष्मण ने भी,
माता कौसल्या को पहले
फिर माता सुमित्रा के भी,
दोनों चरण कमल पकड़े
कहा सूंघ माथा माता ने, परम
प्रिय हो तुम राम के
वन के लिए विदा करती मैं,
जाओ संग अपने भाई के
सेवा में प्रमाद न करना,
सुख-दुःख में यह परम गति हैं
भ्राता के आधीन रहें वे, सत्पुरुषों
का यही धर्म है
दान, यज्ञ, युद्ध में मरना,
इस कुल का आचार यही
पिता तुम्हारे अब राम हैं,
माँ मानना सीता को ही
वन ही अब अयोध्या होगा,
सुखपूर्वक तुम जाओ
दिया राम को भी आशीष, मार्ग
तुम्हारा मंगलमय हो
इंद्र से ज्यों कहे मातलि, कहा
राम से तब सुमन्त्र ने
जहाँ कहें पहुंचा दूँगा
मैं, आप सभी इस रथ पर बैठें
आज से ही गणना होगी, चौदह
वर्षों के वास की
कैकेयी ने किया है प्रेरित,
वन जाने हेतु आज ही
सीता उत्तम अलंकार धर,
तेजस्वी रथ पर तब बैठीं
वस्त्र आदि दिए श्वसुर ने, चौदह
वर्ष के अनुसार ही
कवच आदि व अस्त्र-शस्त्र, रथ
के पिछले भाग में रखे
मढ़ी चमड़े से एक पिटारी,
खंती, कुदारी उस पर रखे
अग्निसमान उस स्वर्णिम रथ
पर, दो भाई आरूढ़ हुए
रथ को तब आगे बढ़ाया, घोड़ों
को हांका सुमन्त्र ने
पुरवासी, सैनिक व दर्शक,
व्याकुल हो अति घबराए
हुए कुपित मतवाले हाथी, सभी
राम के पीछे दौड़े
मानो प्यासे जल खोजते, रथ
के पीछे ऐसे जाते
अश्रु बहाते थे वे सारे,
उच्च स्वर से वे सब बोले
रथ को धीरे-धीरे हांको,
श्री राम को हम देखेंगे
दुर्लभ होगा दर्शन इनका, उर
सबके उत्कण्ठित थे
लोहे का ह्रदय पाया है,
निश्चय ही इनकी माता ने
फटता नहीं तभी उनका उर, देख
पुत्र को वन जाते
जनक नंदिनी हुईं कृतार्थ
हैं, छाया बन पीछे जातीं
श्रीराम का साथ न छोड़ें, ज्यों
मेरु का किरणें सूर्य की
लक्ष्मण तुम भी हुए कृतार्थ,
देवतुल्य भाई संग जाते
वन में सेवा करोगे उनकी,
मार्ग स्वर्ग का तुम पाते
ऐसी बातें कह पुरवासी, सह न
सके उमड़े अश्रु
पीछे उनके चले जा रहे, कुल
नंदन थे जो इक्ष्वाकु
उसी समय दयनीय दशा में,
दशरथ घिरे रानियों से
‘देखूंगा मैं श्रीराम को’, कहकर
महल से बाहर आये
आर्तनाद सुना राजा ने, तब रोती
हुई स्त्रियों का
जैसे हाथी के बंधने पर, हो चीत्कार
हथिनियों का
खिन्न जान पड़ते थे राजा,
जैसे चन्द्र ग्रस्त राहु से
तेजी से रथ को चलायें, कहा
राम ने तब सुमन्त्र से
स्वागत व आभार कुलदीप जी !
ReplyDeleteNishchit hi sumitra or urmila jaisi mahan nario ka vayktitav ramayan me purn roop se ubhar kar nhi aaya hai
ReplyDeleteस्वागत व आभार सुनीता जी, मैथिलीशरण गुप्त जी ने इसीलिए साकेत की रचना की थी.
ReplyDelete