श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः
सीता की श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए प्रार्थना
श्रीराम के यह कहने पर,
प्रियवादिनी, जनक नंदिनी
प्रेम पति का पाने योग्य,
प्रेम वश ही कुपित हो गयीं
ओछी समझ मुझे हे राम ! वचन
आप कहते हैं ऐसे
हँसी आ रही जिनको सुनकर,
भला आप कह सकते कैसे
नहीं योग्य वे वीरों के है,
न ही सुनने के काबिल
अपयश का टीका ये लगाता, न
हो कुछ इससे हासिल
निज भाग्य को ही भोगते, माता-पिता
पुत्र या भाई
पति के भाग्य का अनुसरण,
केवल पत्नी ही करती
मिली आज्ञा अतः मुझे भी, संग
आपके वन जाने की
नारी के हित हर लोक में, आश्रय
दाता है पति ही
पिता, पुत्र, माता सखियाँ,
तन भी उसका नहीं सहायक
दुर्गम वन को यदि जा रहे,
यदि आज आप रघुनन्दन
कुश, काँटों को मैं मार्ग
के, कुचलती हुई चलूंगी आगे
हटा ईर्ष्या और रोष को, हो
निशंक मुझे साथ ले चलें
पीने से बचे जल की भांति, साथ
ले चलें मुझको आप
क्या अपराध किया है मैंने,
जिस हेतु करें मेरा त्याग
ऊँचे महलों में रहना हो, या
विमानों में घूमना
अणिमा आदि सिद्धि पाकर,
ऊँचे अम्बर में विचरना
किसी अवस्था में नारी को, इनकी
कोई नहीं अपेक्षा
उसे अपेक्षित है केवल, पति
के चरणों की ही छाया
किससे कैसा करूं बर्ताव,
शिक्षा दी है माता-पिता ने
नाना हिंसक जीव से भरे,
जाना मुझको निर्जन वन में
जैसे पिता के घर में थी
मैं, वैसे ही वहाँ सुख से रहूंगी
तुच्छ मान कर सुख त्रिलोक
का, धर्म पतिव्रत का पालूंगी
सेवा सदा आपकी करती, नियमपूर्वक
वहाँ रहूंगी
मधुर गंध से सिक्त वनों
में, संग आपके ही विचरुँगी
आप मान देते दूजों को, सक्षम
रक्षा करने में भी
संशय नहीं है मन में मेरे,
बड़ी बात नहीं रक्षा मेरी
कष्ट नहीं आपको दूंगी, सदा
आपके साथ रहूंगी
प्रतिदिन फल-मूल खाकर, सुख
से मैं निर्वाह करूंगी
आपके आगे-आगे रहकर, शेष बचा
भोजन पाऊंगी
मेरे मन की इच्छा है यह, निर्भय
हो वन में घूमूंगी
आप वीर स्वामी हैं मेरे,
सरवर, पर्वत मुझे देखने
हंस और कारण्डव पक्षी, कमल
सुशोभित हैं जिनमें
हे विशाल नयनों वाले !,
चरणों में अनुरक्त रहूंगी
आनन्द का अनुभव होगा,
प्रतिदिन जब वहाँ विचरुँगी
शत, सहस्त्र वर्षों तक भी,
यदि आपका संग मिले
कष्ट नहीं होगा मुझको,
स्वर्ग न चाहूँ बिना आपके
मेरे उर का सारा प्रेम,
एकमात्र आपको अर्पित
नहीं कहीं मन जाता मेरा, है
वियोग में मृत्यु निश्चित
साथ ले चलें यही ठीक है,
मेरा कोई भार न होगा
सीता के ऐसा कहने पर भी, मन
राम का यह न माना
वनवास के कष्टों का फिर, वे
विस्तार से वर्णन करते
निवृत्त करने हित सीता को,
वन गमन के उस विचार से
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्ताईसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
No comments:
Post a Comment