श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
श्रीराम को उदास देखकर सीता का उनसे कारण पूछना और श्रीराम का पिता की आज्ञा
से वन में जाने का निश्चय बताते हुए सीता को घर में रहने के लिए समझाना
निर्जन वन में जाने हेतु,
कर चुका हूँ मैं प्रस्थान
तुमसे मिलने आया हूँ अब,
सुनो वचन मेरे दे ध्यान
कभी प्रशंसा न करना, सम्मुख
भरत के तुम मेरी
क्योंकि नहीं सहन कर पाते, स्तुति
पुरुष दूसरे की
बार-बार मेरी चर्चा भी,
उनके सम्मुख न करना
मनोनुकूल बर्ताव करके, पा
सकती आदर उनका
राजा ने युवराज बनाया, सदा
उन्हें प्रसन्न रखना
वे ही अब राजा होंगे, धैर्य
तुम धारण करना
कल्याणी ! सीते निष्पाप !
मेरे वन जाने के बाद
व्रत, उपवास में रत रहकर,
देवों का करना सम्मान
राजा की भी कर वन्दना,
कौसल्या माँ का पूजन
वृद्धा हैं दुःख से दुर्बल
भी, करना तुम उनका वन्दन
जो मेरी शेष मातायें, उनके
चरणों को प्रणाम
स्नेह, प्रेम, पालन-पोषण
से, सब हैं मेरे लिए समान
भरत, शत्रुघ्न प्रिय
प्राणों से, उन्हें भाई व पुत्र मानना
भरत विरुद्ध कुछ भी न करना,
मेरे कुल के वे हैं राजा
अनुकूल आचरण द्वारा, राजा
अति प्रसन्न होते
विपरीत हो बर्ताव यदि, कुपित
तभी होते हैं वे
जो अहित करने वाले हों,
पुत्र हों तब भी त्यागे जाते
आत्मीय न होने पर भी, समर्थ
को अपना बनाते
इसीलिए तुम हे कल्याणी !
भरत के अनुकूल ही रहो
धर्म और सत्यव्रत में रत,
रहकर यहाँ निवास करो
उस विशाल वन में जाता मैं,
तुम्हें यहीं वास करना
कष्ट किसी को न हो तुमसे,
इसी तरह यहाँ रहना
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छब्बीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
बहुत सुन्दर ...
ReplyDelete