Friday, March 13, 2015

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षट्षष्टितमः सर्ग



राजा जनक का विश्वामित्र और राम-लक्ष्मण का सत्कार करके उन्हें अपने यहाँ रखे हुए धनुष का परिचय देना और धनुष चढ़ा देने पर श्रीराम के साथ उनके ब्याह का निश्चय प्रकट करना

अगले दिन बीता प्रभात जब, नित्य नियम पूरा करके
राम, लक्ष्मण व मुनिवर को, बुलवाया राजा जनक ने  

पूजन कर अतिथियों का तब, पूछा था उनका प्रयोजन
सेवा करने को आतुर थे, बतलाया स्वयं को सेवक

दशरथ के ये पुत्र हैं दोनों, विश्वामित्र ने कहे वचन ये
विश्व विख्यात क्षत्रिय दोनों, हैं इच्छुक धनुष देखने के

दर्शनमात्र से हो संतुष्ट, दोनों वीर चले जायेंगे
मुनि के कहने पर ऐसा, राजा ने ये वचन कहे

राजा देवरात के हाथों, निमी के ज्येष्ठ पुत्र जो थे
सौंपा गया धनुष श्रेष्ठ यह, एक धरोहर के रूप में

पूर्वकाल में दक्ष यज्ञ जब, विध्वंस को प्राप्त हुआ था
रोषपूर्वक इसे उठाकर, शंकर ने देवों से कहा था

भाग चाहता था यज्ञ में, किन्तु नहीं दिया तुमने
नष्ट करूंगा तुम्हें धनुष से, सुनकर देव उदास हुए

देवों ने की उनकी स्तुति, महादेव को शांत किया
हो प्रसन्न देवों को सौंपा, यही धनुष है शंकर का

भूमिशोधन करने हेतु,  एक बार हल चला रहा था
उसी समय प्रकटी कन्या, सीता जिसको नाम दिया

क्रमशः बढ़कर हुई सयानी, पृथ्वी से प्रकटी वह कन्या
चढ़ा सकेगा जो यह धनुष, ब्याह उसी से होगा उसका

कितने ही राजागण आए, किन्तु न कोई सफल हो सका
उठा सके न हिला ही सके, मिथिला पुरी को रुष्ट हो घेरा

देवों को प्रसन्न किया तब, मैंने अपने तप के द्वारा
चतुरंगिणी सेना पाकर, उन राजाओं को भगाया

श्रीराम यदि चढ़ा सकेंगे, प्रत्यंचा इस श्रेष्ठ धनुष की
दशरथ पुत्र के हाथों सौंपूं, अयोनिजा कन्या मैं अपनी

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छाछठवाँ सर्ग पूरा हुआ.

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