श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
पंचपञ्चाशः सर्गः
अपने सौ पुत्रों और सारी सेना के नष्ट हो जाने पर विश्वामित्र का तपस्या करके
महादेवजी से दिव्यास्त्र पाना तथा उनका वसिष्ठ के आश्रम पर प्रयोग करना एवं वसिष्ठ
जी का ब्रह्म दंड लेकर उनके सामने खड़ा होना
देवों, यक्षों, गन्धर्वों के, दानव और राक्षसों के भी
प्रकट हों मेरे हृदय में, अस्त्र महर्षियों के भी स्वामी
यही मनोरथ है मेरा प्रभु, यही मुझे वरदान मिले
‘ऐसा ही हो’ महादेव कह, दे वरदान चले गये
हुआ घमंड अति राजा को, पाकर अस्त्र महादेव से
सागर ज्यों बढ़ता पूनम को, स्वयं को बढ़ा-चढ़ा मानें
मरा हुआ ही माना मुनि को, गये आश्रम पर उनके
भांति-भांति के अस्त्रों का तब, वे प्रयोग करने लगे
दग्ध हुआ तपोवन सारा, भाग चले सैकड़ों मुनिगण
पशु-पक्षी और शिष्यगण भी, भाग गये भयाकुल होकर
सूना हुआ आश्रम सारा, पल में छाया सन्नाटा
कहने लगे मुनि वसिष्ठ तब, अभी नष्ट मैं इनको करता
रोषपूर्वक बोले राजा से, नष्ट किया तूने आश्रम
चिरकाल से जिसे था पोसा, हरा-भरा था जो उपवन
है विवेकशून्य तू पापी, और दुराचारी भी है
नहीं रहेगा सकुशल तू, कितना अत्याचारी है
कहकर ऐसा हुए क्रुद्ध वे, धूम रहित कालाग्नि सम
डंडा लिया सामना करने, अति भयंकर यमदंड सम
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। स्वयं शून्य
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