श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः
ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन, शोण भद्र-तटवर्ती प्रदेश को वसु की
भूमि बताना, कुशनाभ की सौ कन्याओं का वायु के कोप से ‘कुब्जा’ होना
वायुदेव किया करते हैं, कर्म महान कई अनायास ही
कथन सुना जब उनका, हँसकर, सौ कन्याएं तब बोलीं
प्राणवायु के रूप में प्रतिपल, सुरश्रेष्ठ हे ! आप विचरते
अनुपम अति प्रभाव आपका, हम सब भली भांति जानते
ऐसी दशा में क्यों करते, यह अनुचित प्रस्ताव आप यह
होता इससे अपमान हमारा, देख नहीं पाते क्यों यह
कुशनाभ की कन्याएं हम, शाप आपको दे सकती
नहीं करेंगी किन्तु ऐसा, निज तप को बचा रखतीं
ऐसा समय कभी न आये, अवहेलना पिता की करके
कामवश या कभी अधर्म से, स्वयं ही वर अपना ढूँढें
हम पर है प्रभुत्व पिता का, वे ही हैं देवता हमारे
वही पति हमारा होगा, जिसके हाथ हमें सौपेंगे
कुपित हुए तब वायुदेवता, प्रविष्ट हुए उनके भीतर
सब अंगों को टेढ़ा करने, कुबड़ी हुईं देह मुड़ने पर
अति लज्जित व उद्ग्विन हुईं वे, आँखों से आश्रू बहते
राजमहल में किया प्रवेश जब, राजा देख उन्हें घबराए
किसने की अवहेलना धर्म की ?, किसने तुम्हें बनाया ऐसा ?
क्यों चुप हो तुम, तड़प रही हो, दीर्घ
श्वास ले बैठे राजा
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बत्तीसवां
सर्ग पूरा हुआ.
अति सुन्दर कथा ब्योरा कसावदार सांस्कृतिक पुट लिए प्रवाह का।
ReplyDeleteवीरू भाई, स्वागत व आभार !
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