श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः
विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र-दान
ताटका वन में रात्रि बिताकर, मधुर स्वर में मुनि बोले
महायशस्वी राजपुत्र हे !, हूँ संतुष्ट अति मैं तुमसे
चाहे कोई भी हो शत्रु, असुर, नाग, गन्धर्व, देव सा
विजय सदा पाओगे इनसे, अस्त्र तुम्हें जो मैं देता
हो कल्याण तुम्हारा रघुवर, दिव्य,
महान अस्त्र लेकर
दंड, धर्म, काल, व विष्णु, तथा भयंकर एन्द्र का चक्र
नरश्रेष्ठ हे ! वज्र इंद्र का, लो शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल भी
ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नामक, एषीकास्त्र व ब्रह्मास्त्र भी
इनके सिवा गदाएँ भी दो, शिखरी और मोदकी सुंदर
काल पाश व पाश वरुण लो, राम तुम्हें मैं करता अर्पण
सुखी, गीली, दोनों अशनि, नारायण, पिनाक अस्त्र भी
अग्नि, वायव्यास्त्र भी ले लो, क्रौंच अस्त्र व हयशिरा भी
किंकणी और कपाल अस्त्र संग, मूसल व कंकाल अस्त्र
ऐसी दो शक्तियाँ भी लो, राक्षस जिनसे हो सकते हत
विद्याधरों का नन्दन नामक, गन्धर्वों का सम्मोहन भी
प्रसवापन, प्रशमन, अस्त्र संग, उनका ही सौम्य अस्त्र भी
महायशस्वी पुरुष सिंह हे, वर्षन, शोषण सन्तापन भी
कामदेव का प्रिय मादन लो, गन्धर्वों का मानवास्त्र भी
मोहनास्त्र भी ग्रहण करो तुम, मौसल, दुर्जय तामस, सौमन
सूर्यदेव का तेज प्रभ जो, शत्रु तेज को लेता है हर
सोम देव का शिशिर अस्त्र, त्वष्टा का दारुण अस्त्र
महा भयंकर भग देव का, मनु का भी शीतेषु अस्त्र
बल से सम्पन्न सभी अस्त्र हैं, इच्छा धारी परम उदार
करो ग्रहण शीघ्र इनको तुम, महाबली हे राज कुमार
ऐसा कहकर मुनि बैठ गये, मुख करके पूर्व दिशा को
अति हर्षित मुनिवर ने फिर, उन अस्त्रों को दिया राम को
जैसे ही आरम्भ किया जप, दिव्यास्त्र सब हुए उपस्थित
हाथ जोडकर कहा राम से, हम सब हैं आपके किंकर
जो सेवा लेना चाहेंगे, देने को तैयार हैं हम सब
अति प्रसन्न हुए राम अब, स्पर्श किया उन सबका तब
ग्रहण किया राम ने उनको, स्थान दिया मन में अपने
किया प्रणाम मुनि को झुक कर, हुई आरम्भ यात्रा आगे
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्ताईसवां
सर्ग पूरा हुआ.
सुन्दर प्रसंग अद्भुत वर्रण।
ReplyDeleteवीरू भाई, स्वागत व आभार !
Deleteवाल्मीकि रामायण को नेट पर उपलब्ध करने का स्तुत्य प्रयास।
ReplyDeleteसंतोष जी, स्वागत व आभार !
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