Thursday, December 12, 2013

दोनों भाईयों के साथ मुनि का अपने आश्रम पर पहुंचकर पूजित होना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोनत्रिंशः सर्गः
विश्वामित्र का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्व वृत्तांत बताना और उन दोनों भाईयों के साथ अपने आश्रम पर पहुंचकर पूजित होना 

असुरसूदन, हे नारायण !, इंद्र अनुज बन जाएँ आप
पीड़ित हुए देवताओं के, बन सहाय मिटायें संताप

सिद्धाश्रम कहलायेगा यह, तप आपने किया यहाँ है
कार्य सिद्ध हुआ आपका, अब न श्रम शेष रहा है  

महातेजस्वी श्री विष्णु तब, प्रकटे थे अदिति की कोख से
वामन रूप बनाकर अपना, विरोचन सुत के निकट गये थे

इंद्र पुनः हो स्वर्ग का शासक, त्रिलोकी के हित साधक थे
त्रिपग भूमि मांगी बलि से, उससे लेने में सक्षम थे

उन्हीं में भक्ति है मेरी सो, मैंने यहीं निवास बनाया
दुःख-शोक का नाश यहाँ पर, इसके हित ही तुम्हें बुलाया

यहीं राक्षस आते हैं जो, विघ्न यज्ञ में डाला करते
यहीं तुम्हें वध करना उनका, शुभ कार्य में बाधक बनते

तुम भी अपना इसे समझना, यह आश्रम मेरा है जैसे
कहकर ऐसा बड़े प्रेम से, मुनि ने हाथ गहे दोनों के

किया प्रवेश आश्रम में तब, राज कुमारों सहित मुनि ने
हो तुषार रहित चन्द्रमा, ज्यों दो पुनर्वसु तारों में

हर्षित होकर सभी तपस्वी, आए निकट उन्हें देखकर
स्वागत किया राजपुत्रों का, यथायोग्य मुनि पूजा मिलकर

दो घड़ी विश्राम किया फिर, शत्रु दमन राम यह बोले
हो कल्याण आपका मुनिवर, दीक्षा आप आज ही ले लें

सिद्ध हो सके कार्य आपका, इस आश्रम का नाम सफल हो
राक्षसों के वध के विषय में, बात आपकी सत्य सिद्द हो

सुन ऐसा तब विश्वामित्र ने, ली नियमपूर्वक यज्ञ दीक्षा
सजग कुमार रात्रि बिताकर, करने लगे जप गायत्री का

सन्ध्योपासना पूर्ण हुई तब, स्नान आदि से शुद्ध हुए थे
जप पूर्ण कर हुए सम्बोधित, अग्निहोत्र कर बैठे मुनि से


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतीसवां सर्ग पूरा हुआ.



2 comments:

  1. सिद्ध हो सके कार्य आपका, इस आश्रम का नाम सफल हो

    आभार आपका !!

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  2. स्वागत व आभार !

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