श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
द्वादशः सर्गः
राजा का ऋषियों से यज्ञ करने के लिए प्रस्ताव, ऋषियों का राजा को और राजा का
मंत्रियों को यज्ञ की तैयारी करने के लिए आदेश देना
तत्पश्चात समय कुछ बीता, दोष रहित काल आया
ऋतु वसंत का हुआ आगमन, नृप को यज्ञ विचार आया
विप्रवर ऋष्यश्रंग को, झुका के मस्तक नमन किया
पुत्र प्राप्ति हित यज्ञ कराने, उनका सादर वरण किया
हामी भर दी ऋष्यश्रंग ने, ‘सामग्री मंगवाओ’ कहकर
यज्ञ भूमि का हो निर्माण, सरयू के उत्तर तट पर
यज्ञ सम्बन्धी अश्व भी छोड़ें, कहा ऋषि ने तब राजा से
वेदज्ञ ब्राहमणों को बुलाया, पूजन करने, कह सुमन्त्र से
कहा नरेश ने उनसे तब, पुत्र बिना सुख नहीं राज्य में
होंगी पूर्ण कामनायें सब, है विश्वास यज्ञ यह करके
‘साधू, साधू’ कह की सराहना, वशिष्ठ सहित, ब्राह्मणों ने
अमित पराक्रमी चार पुत्र तुम, करो प्राप्त धार्मिक कृत्य से
राजा हर्षित हुए अति फिर, शुभ वार्ता कह मंत्रियों से
ऋत्विज सहित अश्व छोड़ो, वीरों के संरक्षण में
यज्ञ भूमि का हो निर्माण, सरयू के उत्तर तट पर
शांतिकर्म, पुण्याहवाचन का, अनुष्ठान हो विघ्न हरण हित
कष्टप्रद अपराध न बने, तभी यज्ञ सम्पादित होता
वह यजमान नष्ट हो जाता, विधि हीन यज्ञ जो करता
विधिपूर्वक सम्पन्न हो यह, वही उपाय किये जाएँ
त्रुटि का भय नहीं रहे फिर, कोई विघ्न डाल न पाये
किया समर्थन सभी ने मिलकर, राजराजेश्वर दशरथ का
आज्ञा पाकर गए सभी वे, वैसी ही फिर की व्यवस्था
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित
आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बारहवां सर्ग पूरा हुआ.
सुन्दर विश्लेषण !
ReplyDeleteबहुत मनभावन प्रस्तुति..आभार
ReplyDeletewah.... manbhavan!
ReplyDeleteअरविन्द जी, कैलाश जी व मुकेश जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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