श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
एकादश सर्गः
सुमन्त्र के कहने से राजा दशरथ का सपरिवार अंगराज
के यहाँ जाकर वहाँ से शांता और ऋष्यश्रंग को अपने घर ले जाना
हे पुरुष सिंह ! आप स्वयं ही, सेना और सवारी लेकर
मुनिकुमार को लायें सादर, अंगदेश में फौरन जाकर
दशरथ हर्षित हुए वचन सुन, गुरु वशिष्ठ को भी बतलाया
रनिवास से रानियों को ले, मंत्रियों सहित प्रस्थान किया
वन, नदियों को पार किया, अंगदेश जा पहुंचे सब वे
प्रज्ज्वलित अग्नि के समान, ऋष्यश्रंग को देखा बैठे
मित्र के नाते रोमपाद ने, विशेष रूप से पूजन किया
ऋषि कुमार को भी बतलाया, उन्होंने भी सम्मान किया
सात-आठ दिन रहे वहाँ वे, अंगराज से तब बोले
पति के संग तुम्हारी पुत्री, करे पदार्पण मेरे नगर में
एक महान आवश्यक कार्य है, ऋषि ही सम्पन्न कर सकते
रोमपाद ने हामी भर दी, सहर्ष वे दोनों जा सकते
ऋषिपुत्र भी मान गए जब, ली विदा दोनों मित्रों ने
हाथ जोड़कर, लग छाती से, अभिनन्दन किया दोनों ने
भेजे दूत नगर में अपने, कहलाया पुरवासियों को
फैले सर्वत्र धूप सुगंधि, सज्जित करें समस्त नगर को
झाड़-बुहार नगर की सडकें, पानी का छिडकाव करें
हो अलंकृत नगर सारा, ध्वजा-पताकाए लहरें
पुरवासी हुए अति प्रसन्न, राजा का आगमन सुनकर
पालन किया पूर्ण रूप से, उनका शुभ संदेशा पाकर
शंख और दुदुंभी आदि, वाद्यों की ध्वनि गुंजाये
ऋषिपुत्र को आगे करके, सजे सजाये नगर में आए
द्विजकुमार का दर्शन करके, नगर निवासी हुए प्रसन्न
इंद्र समान दशरथ के साथ, ऋषि पुत्र जैसे थे वामन
अंतः पुर में ले गए उनको, शास्त्रविधि से किया आदर
कृत-कृत्य माना स्वयं को, ऋषि को निज निकट पाकर
विशाल लोचना शांता को पा, रानियाँ भी हुईं हर्षित
कुछ काल तक रही पति संग, शांता भी हो उनसे पूजित
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में ग्यारहवां
सर्ग पूरा हुआ.
बहुत सुन्दर...आभार
ReplyDeleteकैलाश जी, स्वागत व आभार !
ReplyDeleteachcha prayas
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