श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
दशमः सर्गः
अंगदेश में ऋष्यश्रंग के आने तथा शांता के साथ विवाह
होने का प्रसंग कुछ विस्तार के साथ वर्णन
राजा की आज्ञा जब पायी, कहा सुमन्त्र ने उसी कथा को
रोमपाद के मंत्री गण ने, ऋषि बुलाया जिस उपाय से
कहा अमात्यों सँग पुरोहित ने, एक उपाय निर्विघ्न है
ऋषि सदा वन में ही रहते, स्त्री जाति से अनभिज्ञ हैं
जन के चित्त को हर लेते जो, विषयों का देंगी प्रलोभन
लुभाकर ले आयें गणिकाएँ, सुदंर वेश बना कर शोभन
मुख्य-मुख्य गणिकाएँ गण की, उस महान वन जा पहुंची
आश्रम से कुछ निकट ठहर, करें प्रतीक्षा मुनि दर्शन की
मुनिकुमार थे धीर बहुत, सँग पिता के ही रहते थे
जन्म से अब तक कभी उन्होंने, स्त्री के दर्शन न किये थे
एक बार घूमते-फिरते, मुनिकुमार वहाँ जा पहुँचे
वनिताएँ गातीं थीं मनहर, वेश बहुत ही सुंदर थे
देखा ऋषिकुमार को जिस क्षण, उनके पास चली आयीं
आप कौन हैं, क्या करते हैं, हम ये हैं जानना चाहतीं
ऋष्यश्रृंग ने देखा उनको, मन में स्नेह उपज आया
पिता का परिचय दे दूँ इनको, भीतर यह विचार किया
पिता का नाम विभाण्डक है, मैं कहलाता ऋष्यश्रृंग
कर्म तपस्या सभी जानते, निकट ही है मेरा आश्रम
आप परम सुंदर लगती हैं, चलें आश्रम पर सब मेरे
विधिपूर्वक करूँगा पूजा, सहमत हो कर गयीं सभी वे
अर्ध्य, पाध्य, और कंद-मूल दे, विधिवत् पूजन किया मुनि ने
शीघ्र विचार किया जाने का, भय था उनको ऋषि पिता से
वे बोलीं, ब्रह्मण ! ये फल हैं, आप भी ग्रहण करें इनको
हर्ष में भरकर आलिंगन कर, दिए मिष्ठान आदि उनको
बहुत सुन्दर और रोचक प्रस्तुति...
ReplyDeleteकैलाश जी, आपका स्वागत व आभार!
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