मैं तुमसे मिलने को आतुर
पर क्योंकर तुमसे मिल पाता
जब निकलूं घर से मिलने को
सँग मेरे अहं चला आता !
मैं स्वयं तुमसे चाहूँ मिलना
पर यह न कभी संभव होता
मन, बुद्धि, चित्त, अहं का गढ़
टूटा न कभी तोड़ा जाता !
हम स्वयं बंधते हैं बंधन में
फिर कहते प्रभु! खोलो,खोलो
नित अहं को पोषा करते हैं
फिर भजते हरि! बोलो,बोलो
जब निकलूं घर से मिलने को
ReplyDeleteसँग मेरे अहं चला आता !
सहजता से अभिव्यक्त होती सच्चाई!