Monday, May 29, 2017

कौसल्या का विलाप और सारथि सुमन्त्र का उन्हें समझाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षष्टितम: सर्गः

कौसल्या का विलाप और सारथि सुमन्त्र का उन्हें समझाना

आवेशित ज्यों हुईं भूत से, थर-थर कंपित हुईं कौसल्या
गिरीं धरा पर हो अचेत सी, सारथि से यह वचन तब कहा

जहाँ राम, लक्ष्मण, सीता हैं, पहुँचा दो तुम वहीं मुझे भी
उनके बिन अयोध्या में अब, जीना दुष्कर है पल भर भी

शीघ्र ले चलो वन में मुझको, वरना मृत्युलोक जाऊँगी
अति कठिन है जीवित रहना, अगर ना देख उन्हें पाऊँगी

हाथ जोड़ उनको समझाया, तब सुमन्त्र ने वचन कहे ये
शोक, मोह जनित व्याकुलता, अति शीघ्र ही इनका त्याग करें

श्रीराम संताप भुलाकर, वन में करते हैं निवास अब
पुण्य कमाते करके सेवा, जितेन्द्रिय  व धर्मज्ञ लक्ष्मण

श्रीराम में लगा हुआ है, सीता का मन भी दिन-रात
निर्जन वन में घर की भांतिरह निर्भय पातीं उल्लास

अल्प दुःख भी नहीं है मन में, विचरें वन में वह आयास
उपवन में ज्यों घूमा करतीं, जैसे हो वन का अभ्यास

बिना राम अयोध्या वन है, वन, उनके लिए अयोध्या
विचरण हेतु ज्यों आयी हैं, उन्हें देख ऐसा ही लगता

गाँव, वृक्ष, नदी देखकर, परिचय उनका पूछा करतीं
श्रीराम को निकट देखकर, एक बालिका सी विचरतीं

यही स्मरण उनके बारे में, याद नहीं आता कुछ अन्य
कौसल्या को सुख देने हित, कहे सुमन्त्र ने वचन रम्य

मार्ग में चलने की थकान हो, वायु, धूप, घबराहट से
दूर नहीं होती कभी भी, कमनीय कांति मुख की उनके

कमल और चन्द्रमा समान, सुंदर मुखड़ा मलिन न होता
बिना महावर चरण लाल हैं, हिंसक पशु से भय न होता

आभूषण का त्याग न किया, नूपुर उनके झंकृत होते
करें शोक न उन तीन हित, पित्राज्ञा का पालन करते

युक्ति युक्त वचन कहे ये, कौसल्या को दुःख से रोका
किन्तु विरत न हुईं रोने से, करुणित क्रन्दन नहीं रुका

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में साठवाँ सर्ग पूरा हुआ.


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