श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोनषष्टितम: सर्गः
सुमन्त्र द्वारा श्रीराम के शोक से जड़-चेतन एवं अयोध्यापुरी की दुरवस्था का
वर्णन तथा राजा दशरथ का विलाप
कहा सारथी ने तब
आगे, प्रस्थित हुए राम जब वन
को
कर प्रणाम वापस
मैं लौटा, धारे उर वियोग के दुःख को
अश्व बहाने लगे
अश्रु तब, बेमन से ही वे चलते थे
गुह संग और रहा
सोच यह, शायद मुझको राम बुला लें
वृक्ष सूख गये
दुःख में सारे, जल भी गरम हुए
सोत के
जीव-जन्तु आहार न
मांगते, वन अरण्य हुए नीरव से
पंकज सूख गये
सरवर के, मीन, हंस भी नष्ट हुए हैं
गंध नहीं बसती
फूलों में, फल पहले से नहीं रहे हैं
सूने हो गये
बाग़-बगीचे, कोई नहीं मिला सुखी हो
अश्रु बहाने लगे
सभी नर, बिना राम जब देखा रथ
को
अट्टालिकाओं पर
बैठी थीं, सब नारियाँ व्यथित हो
उठीं
काजल रहित नेत्र
उनके थे, भर अश्रु इस रथ को देखतीं
शत्रु व मित्र
समान दुखी हैं, नगरी मलिन दिखाई
देती
दीर्घ श्वासें
बनी उच्छ्वास, पुरी पीड़ित है
कौशल्या सी
सुन सुमन्त्र वचन
महाराजा, गद्गद वाणी में यह बोले
मोहवश यह कुकृत्य
किया है, कैकेयी के आ कहने में
कुशल वृद्ध
पुरुषों के संग, विमर्श भी मैंने
नहीं किया
कर डाला अनर्थ यह
कैसा, करी पूर्ण नारी की इच्छा
होनहार वश निश्चय
ही यह, विपदा आन पड़ी है कुल पर
शीघ्र मुझे वहीं
ले चलो, अगर मेरा उपकार है तुम पर
श्रीराम के दर्शन
कर लूँ, प्रेरित करते हैं मेरे
प्राण
यदि आज्ञा मेरी
चलती हो, लौटा लाओ तुम श्रीराम
उन बिन जीवित ना
रह सकता, तुरंत अरण्य ले चलो मुझे
सीता के संग
दर्शन कर लूँ, लक्ष्मण के बड़े
भाई के
लाल नेत्र और बड़ी भुजाएं,
मणियों के कुंडल जो धरते
उन श्रीराम को न देखूं तो,
यमलोक के दर्शन होंगे
इससे बढ़कर क्या
दुःख होगा, मरणासन्न अवस्था में हूँ
रामचन्द्र को
नहीं देखता, इक अनाथ सा मैं
मरता हूँ
पीर से वे अचेत
हो रहे, दुर्लंघ्य शोक में डूबे
थे
अतीव कठिन पार
होना है, शोक के इस महासागर
से
महा वेग है शोक
राम का, सीता वियोग छोर दूसरा
दीर्घ श्वास
लहरें हैं जिसकी, अश्रु प्रवाह
मलिन जल उसका
हाथ पटकना मत्स्य
विहरना, महा गर्जना क्रंदन आकुल
बिखरे केश सेवार
समान, कैकेयी ही है बड़वानल
मेरे अश्रुओं के कारण यह, ग्राह ज्यों वचन मंथरा के
वनवास ही महा
विस्तार, वरदान मानो दो तट उसके
देख नहीं पाता
पुत्रों को, बड़े पाप का फल है
मेरे
इसी तरह कर रहे
विलाप, राजा गिर गये हो मूर्छित
से
करुणा जनक वचन
सुन उनके, देखा मूर्छित तब राजा को
दुगुना भय हो गया
था पुनः, राम की माता कौसल्या को
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनसठवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
No comments:
Post a Comment