श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः
भगीरथ की तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान शंकर का गंगा जी को अपने सिर पर धारण करके
बिंदु सरोवर में छोड़ना और उनका सात धाराओं में विभक्त हो भगीरथ के साथ जाकर उनके
पितरों का उद्धार करना
श्रीराम ! जब गये ब्रह्माजी, तप में लीन हुए भगीरथ
अग्रभाग को अंगुष्ठ के, रखे हुए धरा पर केवल
एक वर्ष तक शंकर जी की, की उपासना पूरे मन से
उमापति लोकवंदित जो, पशुपति तब प्रकट हुए
नरश्रेष्ठ, प्रसन्न हूँ तुम पर, प्रिय तुम्हारा मैं करूंगा
गिरिराज कुमारी गंगा जी को, निज मस्तक पर धारूंगा
शंकर जी की पाकर स्वीकृति, ज्येष्ठ पुत्री हिमवान की
वेग सहित अति विशाल बन, शंकर के मस्तक पर आयीं
उस पल यह विचार किया था, परम दुर्धर गंगा जी ने
पाताल में घुस जाऊंगी, प्रखर प्रवाह के संग उनको ले
जाना जब इस अहंकार को, कुपित हुए त्रिनेत्रधारी तब
गंगा को अदृश्य बनाया, निज जटाओं में उलझा कर
पावन मस्तक से रूद्र के, जो हिमालय सम विशाल था
नहीं जा सकीं धरा पर गंगा, जटा समूह गुफाओं सम था
नहीं पा सकीं मार्ग वहाँ से, वर्षों तक थीं वहीं भटकती
पुनः भगीरथ लगे तप में, कृपा मिली फिर शंकर जी की
बिंदु सरोवर में जा छोड़ा, महादेव ने गंगा जी को
बनी सात धाराएँ उनकी, ले जाती थीं शीतल जल को
हा्लादिनी, पावनी, नलिनी, पूर्व दिशा की ओर गयीं
सुचक्षु, सीता, महानदी सिन्धु, पश्चिम को थीं प्राप्त हुईं
सप्तम धारा थी जो उनमें, गयी भगीरथ के पीछे
दिव्य रथ पर थे आरूढ़ वे, अनुसरण उनका करने
गंगा जी की वह जल राशि, कलकल नाद के साथ बही
मत्स्य, कच्छप, शिंशुमार के, झुंड गिरे, अति शोभा हुई
देव, ऋषि, गन्धर्व, सिद्ध गण, यक्ष विमानों पर आये
अश्वों, गजराजों पर चढ़कर, गंगा जी को सभी निहारें
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