Monday, November 5, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्-चतुर्दशः सर्गः


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


चतुर्दशः सर्गः


महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेधयज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान

इधर वर्ष जब पूर्ण हुआ, अश्व भ्रमण कर लौटा भू में
सरयू नदी के उत्तर तट पर, राजा बैठे संग मुनि के

वेदों के पारंगत ब्राह्मण, न्याय, विधि के ज्ञाता थे जो
शास्त्र अनुसार कर्म करते थे, किया यज्ञ के सब कर्मों को

देवताओं का पूजन करके, कर विधिपूर्वक प्रातःसवन भी
इंद्र देव को दिया हविष्य, पाया सोमलता का रस भी  

ऋष्यश्रंग आदि मुनियों ने, मंत्रों द्वारा किया आवाहन
मधुर, मनोहर सामगान से, देवों को था किया समपर्ण

योग्य हविष्य मिला देवों को, होताओं ने भूल नहीं की
क्षेमयुक्त, निर्विघ्न कर्म कर, की थी पूर्ण विधि यज्ञ की

सभी वहाँ विद्वान थे ब्राह्मण, कोई नहीं थका या भूखा
सबको सब उपलब्ध वहाँ था, सबको मिलता दान वहाँ

विधिवत् पके अन्न के ढेर, पर्वत जैसे पड़ें दिखाई
तृप्त हुए पाकर हम भोजन, दे राजा को यही सुनाई

वस्त्र-आभूषण से सजे थे, पुरुष अन्न परोसा करते
मणिमय कुंडल धारण करके, सभी अन्य काम भी करते

दो सवनों के अंतराल में, उत्तम वक्ता, धीर ब्राह्मण
शास्त्रार्थ करते आपस में, करते कर्मों का सम्पादन

व्याकरण के ज्ञाता थे वे सब, बहुश्रुत और कुशल थे वक्ता
ब्रह्मचर्य का पालन करते, द्विज सभी वेदों के ज्ञाता

 समय हुआ जब यूप खड़े हों, छह यूप बेल के गाड़े
खैर, पलाश के यूप भी गाड़े, बिल्व्निर्मित छह किये खड़े

बहेड़े का एक यूप था, देवदारु के दो अभीष्ट थे
दोनों बाँहों की दूरी पर, वे दोनों स्थापित थे

सोना जड़ा गया था उनमें, इक्कीस अरलि थे ऊँचे
पृथक-पृथक वस्त्रों से ढके थे, आठ कोणों से थे सजे 

2 comments:

  1. बहुत रोचक प्रस्तुति...आभार

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  2. कैलाश जी, स्वागत व आभार !

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