श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
चतुर्दशः सर्गः
महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेधयज्ञ का सांगोपांग
अनुष्ठान
चयन द्वारा सम्पादित अग्नि, स्थापित की कुशल द्विजों ने
पूर्वाभिमुख गरुड़ सी लगती, जो पंख, पुच्छ फैलाकर देखे
सुवर्ण ईंट से पंख बने थे, गरुड़ाकृति अग्नि लगती थी
अठारह प्रस्तारों वाली वह, अश्वमेध के योग्य सजी थी
पूर्वोक्त यूपों में वहाँ पर, शास्त्र विहित पशु बांधे थे
सर्प और पक्षी भी कुछ, देवताओं हित वहाँ बंधे थे
शामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व, कूर्म आदि जलचर भी थे
शास्त्रविधि से उन सबको, बांधा था वहाँ ऋषियों ने
बंधे हुए थे पशु तीन सौ, उन यूपों में
उस काल में
राजा का वह अश्वरत्न भी, बंधा हुआ था उसी स्थान में
संस्कार युक्त प्रोक्षण आदि, किया तब कौशल्या रानी ने
तीन बार स्पर्श किया फिर, हो प्रसन्न तीन तलवारों से
धर्मपालन की इच्छा रखकर, रानी कौशल्या थी आयी
सुस्थिर चित्त से निकट अश्व के, एक रात्रि वहीं बितायी
कौशल्या, वावाता, परिवृत्ति, तीन जाति की महिलाओं से
स्पर्श कराया उस अश्व का, होता, अध्वर्यु, उद्गाता ने
तत्पश्चात जितेन्द्रिय ऋत्विक ने, विधिपूर्वक था जिसे निकाला
शास्त्र विधि से उसे पकाया, वह गूदा लेकर अश्वकन्द का
उस गूदे की दी आहुति, फ़ैल गया था उसका धुआं
पाप दूर करने के हित ही, राजा ने था उसको सूंघा
अंगभूत अश्वमेध यज्ञ के, जो-जो भी हवनीय पदार्थ थे
सोलह ऋत्विज ब्राह्मण मिलकर, विधिवत् अग्नि में आहुति दें
ReplyDeleteतत्पश्चात जितेन्द्रिय ऋत्विक ने, विधिपूर्वक था जिसे निकाला
शास्त्र विधि से उसे पकाया, वह गूदा लेकर अश्वकन्द का
कथांश का मनोहर चित्रण .आभार .
वीरू भाई, स्वागत और आभार!
Deleteइस विरल प्रसंग पर बेहतरीन लेखन .बधाई ,शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .मंजन बेहतर है ब-शर्ते किरकिरी न हो उसमें लेशमात्र भी वरना मसूढ़े छिल जायेंगे .
ReplyDeleteअद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteमोहन जी, आगे भी पढते रहें..स्वागत है
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