Sunday, February 10, 2019

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


पंचसप्ततितमः सर्गः

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना 

आर्य राम गये हों वन को, जिस निर्दयी जन की सलाह से
खीर, दूध आदि देवों को, अर्पित किये बिना वह खा ले 

मित्र के प्रति द्रोह वह करे, निंदा हो गुरुजन की उससे
बंधु-बांधवों के होते भी, अन्न अकेले ही वह खाले

निज अनुरूप मिले न पत्नी, वह अग्निहोत्र आदि न करे
बिना सुख भोगे सन्तान का, मृत्यु का वह वरण करे

सन्तान का मुख न देखे, अकाल मृत्यु का वह भागी हो
भृत्य त्याग, वृद्ध हत्या व, स्त्री हत्या का पाप लगे उसे

लाह, मधु, मांस, विष, लोहा आदि, निषिद्ध वस्तुओं को बेचे
इनसे प्राप्त हुए धन से ही , पोषण निज परिवार का करे 

पीठ दिखाकर भागे रण से, इसमें भी वह मारा जाये
फटे पुराने वस्त्र धाारे वह, खप्पर में भीख मांगे

काम-क्रोध के वश में होकर, कर मद्यपान द्यूत खेले
नहीं धर्म में रूचि हो उसकी, अपात्र को दान सदा दे

लूट के ले जाएँ लुटेरे, उसके धन-वैभव को सारे
दोनों संध्याओं में सोने का, उस अधम को पाप लगे

आग लगाने का पाप व, गुरुपत्नीगामी का पाप
मित्र द्रोह का पाप भी, उस निर्दयी जन को लगे

जिसकी सलाह से कृत्य हुआ यह, पुण्य से वंचित ही रहे
देवों, पितरों, माता-पिता की, सेवा वह नर कभी  न करे

आज ही वह भ्रष्ट हो जाये, सत्पुरुषों के परम लोक से
कीर्ति, कर्म भी सत्पुरुषों के, उससे सदा दूर ही रहें

रहे अनर्थ के पथ में स्थित, होकर दरिद्री  क्लेश भोगे
पुत्र अधिक हों रोग से पीड़ित, उनका पोषण कर न सके

निष्फल कर आशा याचकों की, छल-कपट में सदा लगा हो
अपवित्र, चुगली करता हो, उसको अपावन पाप लगा हो

सती-साध्वी को ठुकरा दे, नष्ट हुई संतति का दुःख हो
पूजा में बाधा डाल दे, नई ब्याही गाय को दोह ले 

परस्त्री का करे वह सेवन, धर्म के अनुराग को त्यागे
उसे वही पाप लगे जो, भोगें जल गंदा करने वाले 

विष देने का पाप लगे, प्यासे को वंचित वह रखे
पक्षपात का दोषी हो वह, कलह प्रिय भी बना रहे

इस प्रकार शपथ के द्वारा, कौसल्या को दे आश्वासन
भरत गिरे भूमि पर दुःख से, कौसल्या ने कहे ये वचन

शपथ अनेकों खाकर तुम, प्राणों को पीड़ा देते हो
बेटा ! अब शांत हो जाओ, दुःख तुम मेरा बढ़ा रहे हो

शुभ लक्षण सम्पन्न चित्त है, धर्म से विचलित नहीं हुए
हो सत्य प्रतिज्ञ अतः तुम्हें, सत्पुरुषों के लोक मिलेंगे

ऐसा कहकर कौसल्या ने, गले लगाया पुत्र भरत को
फूट-फूटकर लगीं वह रोने, रोते थे वह भी दुखी हो

मोह, शोक से व्याकुल था उर, बुद्धि नष्ट हुई थी जैसे
हुए अचेत विलाप करते थे, रात्रि बीत गयी शोक में

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


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