श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः
श्रीराम का मार्ग में अयोध्यापुरी से वनवास की आज्ञा मांगना और श्रंगवेरपुर
में गंगातट पर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना, वहाँ निषादराज गुह्द्वारा उनका
सत्कार
देव, मनुज, गन्धर्व, सर्प, व पशु-पक्षी के लिए समान
जल जिनका समादरणीय, गंगा जो करतीं कल्याण
सरिताओं में जो श्रेष्ठ हैं, दर्शन यहाँ से होगा उनका
लक्ष्मण संग सुमन्त्र द्वारा, अश्व उन्हें ले गये
वहाँ
खोल दिया उत्तम घोड़ों को, गये सुमन्त्र, थे
राम जहाँ
श्रृंगवेरपुर का राजा तब, गुह नामक था मित्र राम का
जन्मा था निषाद्कुल में वह, शक्तिवान अति बलशाली
बन्धु-बांधवों के संग आया, जब सूचना उसे मिली थी
लक्ष्मण सहित राम तब उससे, आगे बढ़कर मिले प्रेम से
दुखित हुआ गुह बहुत अधिक, देख राम को वल्कल धारे
कहा राम से, राज्य मेरा, अयोध्या समान है आपका
किसे सुलभ अतिथि आपसा, कैसे करूँ सम्मान आपका
भांति-भांति के अन्न लिए वह, सेवा में आया उनकी
हम सेवक, स्वामी हैं आप, स्वाकारें सब सामग्री
उत्तम शय्याएं कीं प्रस्तुत, अश्वों हेतु चने, घास भी
राज्य सौंपने को था आतुर, कहा, भूमि है यह आपकी
उत्तर दिया राम ने उसको, स्नेह तुम्हारा है पर्याप्त
आलिंगन में बाँध कहा यह, हो गया स्वागत सत्कार
जो कुछ तुमने भेंट किया है, स्वीकार कर वापस देता
इस समय अन्यों द्वारा दी, वस्तु ग्रहण नहीं कर सकता
वल्कल धारे, फल-मूल खा, तापसवेश में विचरण करता
अश्वों हेतु जो सामग्री, केवल उसकी मुझे आवश्यकता
उन्हें खिला-पिला देने से, हो जायेगा मेरा सत्कार
तब गुह ने आज्ञा की ऐसी, लाए सेवक अश्व आहार
सांयकाल का संध्या पूजन, किया पूर्ण जल ग्रहण किया
वृक्ष के नीचे भू शय्या पर, पत्नी सहित विश्राम किया
एक वृक्ष का ले आश्रय, कुछ दूर बैठे लक्ष्मण
जगा रहा था भर रात्रि, गुह भी कर धनुष धारण
देखा नहीं था दुःख जिन्होंने, थे योग्य सुख पाने के
ही
उन दशरथ नन्दन की रात, अति देर से ही बीती थी
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचासवाँ
सर्ग पूरा हुआ
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