श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अरण्यकाण्डम्
षष्ठ: सर्ग:
वानप्रस्थ मुनियों का राक्षसों के अत्याचारों से अपनी रक्षा के लिए श्रीरामचंद्र जी से प्रार्थना करना और श्रीराम का उन्हें आश्वासन देना
ब्रह्मलोक प्रस्थान किया जब, द्विजश्रेष्ठ मुनि शरभङ्ग ने
मुनियों के समुदाय आये, श्रीरामचंद्र जी से मिलने
ब्रह्माजी के नख से उपजे, वैखानस उनमें शामिल थे
बालखिल्य,बालों से उपजे, पत्राहार व वायुभक्ष थे
कुछ भी बचा न रखते थे जो, संप्रक्षाल मुनि भी आये
सूर्य, चन्द्र, रश्मियों का पान, मरीचि मुनीजन करते थे
कच्चे अन्न को कूट कर खाते, अश्मकुट्ट व सलिलाहारी
दाँतों से ले ऊखल का काम, संग आये दंतोलूखली
जल में कंठ तक डूबे रहकर, उन्मज्जक तपस्या करते
बिना बिछौने सोने वाले, गात्रशय्या वहाँ आये थे
तपोनिष्ठ, पंचाग्नि सेवी, आर्द्रपटवासा मुनीजन भी थे
ऊर्ध्ववासी, स्थांडिलशायी, आकाशनिलय, दान्त आये थे
ब्रह्मतेज से संपन्न थे वे, योग से मन एकाग्र हुआ
धर्म के ज्ञाता श्रीराम संग, उनका यह संवाद हुआ
इक्ष्वाकु वंश के ही नहीं, भूमंडल के स्वामी हैं आप
देवों के नरेश ज्यों इंद्र, सभी मनुष्यों के राजा आप
अपनी कीर्ति वपराक्रम से ही,तीनों लोकों में विख्यात
पितृ भक्त और सत्य निष्ठ भी, सभी धर्म हैं आपको ज्ञात
निज स्वार्थ सिद्धि हेतु ही, हम सभी आपके सम्मुख आये
क्षमा चाहते हैं पहले ही, बन प्रार्थी निवेदन लाये
राजा यदि प्रजा से अपनी, छठा भाग कर में लेता है
किंतु करे न रक्षा उसकी, अधर्म का भागी होता है
पुत्र समान प्रजा का पालन, यदि कोई राजा करता है
अक्षय कीर्ति जगत में पाये, ब्रह्मलोक तक वह जाता है
मुनि जन फल-मूल ग्रहण कर, उत्तम धर्म का करें अनुष्ठान
चौथा भाग उस शुभधर्म का, प्रजा रक्षक नरेश को प्राप्त


