Wednesday, November 6, 2024

श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


 चतुर्थ सर्ग:


श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध 


रघुकुल के श्रेष्ठ वीरों को, ले जाते देखा सीता ने 

दोनों बाँहें ऊपर करके, अति विलाप लगीं वह करने


सत्यवादी, शीलवान हैं, विचार वान भी दशरथ नंदन

संग दोनों को क्यों ले जाते,  रौद्ररूप धर महाराक्षस


राक्षस ! तुम्हें नमन करती मैं, जीवित नहीं बचूँगी वन में 

त्याग कर इन दो वीरों का, अपने संग ले चलो तुम मुझे  


विदेहनंदिनी सीता जी की, भाइयों ने जब बात सुनी

करने लगे अति शीघ्रता, वे दोनों उस राक्षस के वध की 


लक्ष्मण ने बायीं बाँह तोड़ी, बल से श्रीराम ने दायीं 

मेघ समान श्याम वह राक्षस, अतीव व्याकुल हो हुआ दुखी 


वज्र के द्वारा टूटे शिखर सा, गिर पड़ा था वह भूमि पर 

तब आघात किया लातों से, मुक्कों व भुजाओं से उस पर 


कई बाणों से घायल करके, तलवार से क्षत-विक्षत कर  

पृथ्वी पर रगड़ा जाने पर, मारा नहीं जा सका राक्षस 


अवध्य और विशाल पर्वत सम, बार-बार विराध को देख 

सदा अभय का दान करते जो, कही राम ने बात विशेष 


तपस्या से वरदान प्राप्त कर, राक्षस यह अवध्य हुआ है

शस्त्र से मारा नहीं जा सकता, भू में इसको हम गाड़ दें 


हाथी के समान भयंकर, रौद्र तेज धारी यह राक्षस 

यही एक उपाय शेष है, एक गड्ढ खोदो तुम लक्ष्मण 


लक्ष्मण को यह आज्ञा देकर, राम ने अपने एक पैर से 

विराध का गला दबाया, तभी कहा यह वचन विराध ने 


इंद्र समान है बल आपका ! मोहवश मैं पहचान न सका 

माँ कौसल्या धन्य हुई हैं, आपसे मैं मारा अब गया 


महाभागा यह सीता जी हैं, यह आपके छोटे भाई 

आप ही श्री रामचंद्र हैं, यह समझ जरा देर से आयी 


मैं तुंबरू नामक गंधर्व, मुझको कुबेर का शाप मिला 

उसी शाप के कारण यहाँ, भयंकर योनि में आना पड़ा