Wednesday, June 12, 2019

भरत का वन में चलने की तैयारी के लिए आदेश देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


द्व्यशीतितमः सर्गः

वसिष्ठ जी का भरत को राज्य पर अभिषिक्त होने के लिए आदेश देना तथा भरत का उसे अनुचित बताकर अस्वीकार करना और श्रीराम को लौटा लाने के लिए वन में चलने की तैयारी के निमित्त सबको आदेश देना

उत्तम ग्रह-नक्षत्र से शोभित, श्रेष्ठ जन व वसिष्ठ थे जहाँ
पूर्णिमा की रात्रि की भांति, उस सभा को भरत ने देखा

यथायोग्य आसन पर बैठे, उनके वस्त्रों की आभा से
उत्तम सभा दीप्त हो उठी, अंगरागों की महा प्रभा से

वर्षाकाल बीतने पर ज्यों, शरद रात्रि सुशोभित होती
विद्वानों के समूह से सज्जित, वह सभा सुंदर लगती थी

राजा की सम्पूर्ण प्रकृतियां, देख उपस्थित उस सभा में 
धर्म के ज्ञाता मुनि वसिष्ठ ने, मधुर वचन ये कहे भरत से

धन-धान्य से परिपूर्ण यह, समृद्धिशालिनी पृथ्वी देकर
स्वर्गवासी हुए हैं राजा, धर्म का सदा आचरण कर

सत्पुरुषों के धर्म पर चले, सत्यवादी श्रीरामचन्द्र भी
आज्ञा नहीं त्यागी पिता की, जैसे चन्द्र न तजे चाँदनी

पिता और बड़े भाई ने, अकंटक राज्य तुम्हें सौंपा
पालन करो मंत्रियों के संग, शीघ्र ही लो अभिषेक करा

चार दिशाओं व दूर देश के, राजा व व्यापारी गण भी
रत्न असंख्य देंगे तुम्हें फिर, सागर के व्यवसायी भी

सुन बात यह शोक में डूबे, राम शरण में गये मन से
भरी सभा में अश्रु बहा, कर विलाप कहा गद्गद् वाणी से

 रहे सदा ब्रह्मचारी जो, कुशल अति सब विद्याओं में
धर्म हेतु जो प्रयत्नशील हैं, कैसे लूँ उनका राज्य मैं

राजा का कोई भी पुत्र, राज्य न लेगा बड़े भाई का
यह राज्य व मैं दोनों ही, श्रीराम के ही हैं, यही माना




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