Tuesday, November 3, 2015

कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


अष्टादशः सर्गः

श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिंतित होने का कारण पूछना और कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना 

अति व्यथा तब हुई राम को, सुनी बात जब कैकेयी की
धिक्कार है मुझ पर ! बोले, क्योंकर तुमने यह बात कही

वरण अग्नि का कर सकता हूँ, महाराज के कहने से मैं
भक्षण भी कर सकता हूँ विष, सागर में जा सकता मैं

गुरू, पिता हैं और हितैषी, आज्ञा पा सब कर सकता
पूर्ण करूंगा मुझे बताओ, जो अभीष्ट है राजा का

द्वंद्व नहीं था उनके मन में, सरल, सत्यवादी थे वे
बात सुनी जब कैकेयी ने, दारुण वचन कहे ये उनसे

रघुनंदन ! प्राचीन बात है, देवासुर संग्राम हुआ था
बिंधे पिता थे शत्रु बाण से, मैंने की थी उनकी रक्षा

हो प्रसन्न दिए थे दो वर, आज उन्हीं को मैंने माँगा
राज्य मिले भरत को पहला, दूजे से वनवास तुम्हारा

यदि चाहते सत्य की रक्षा, पिता की आज्ञा को मानो
चौदह वर्ष गुजारो वन में, पिता को सत्य सिद्ध करो

जो सामान जुटाया उससे, राजतिलक भरत का हो
तुम त्यागो इस अभिषेक को, चीर, जटा धारण कर लो

कोसल की इस वसुधा का, जो पूर्ण रत्नों, अश्वों से
शासन करें भरत उसका, बस इतना ही माँगा मैंने

कष्ट सोच तुमसे वियोग का, करुणा से पीड़ित हैं राजा
साहस नहीं तुम्हें देख लें, मुख सूखा जाता है इनका

तुम आज्ञा का पालन करके, राजा को संकट से उबारो
सत्य की रक्षा हो इससे, दिए वचन का भी पालन हो

शोक नहीं हुआ राम को, कैकेयी के जब वचन सुने
किन्तु व्यथित हुए थे राजा, वियोगजनित दुःख के भय से

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.




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